रह रह के भीतर से कोई जगा रहा है ,
कुछ यु कह रहा है ,समय जा रहा है
तुम क्या कर रहे हो ,कहा जा रहे हो ,
क्यों आखिर इस जग में ,उलझे जा रहे हो
मत भूलो ! मौत कभी किसी का इंतज़ार नहीं करती
खाली हो रही स्वांसो की गठरी ऐसे ही नहीं भरती
ज़मी गा रही है आसमा गा रहा है !
ये वक़्त जा रहा है ,ये वक़्त जा रहा है
रह रह के भीतर से कोई जगा रहा है ,
कभी तो सोचो कुछ तो विचारो
अनमोल अपनी स्वांसो को ,यूँ तो न बिसारो
वक़्त बहुत कम है ,सुख थोड़े हजारो गम है
कब तक उलझे रहोगे , न जगोगे
कोई जगाने आ रहा है , हर पल कहता जा रहा है ,
जनम मानुष का हर बार नहीं दूंगा ,
हर इक इक स्वांस का , कर्म का , हिसाब जरूर लूँगा ,
सावधान याद रखना , ना भुलाना ,
मेरी इस प्रेरणा को नज़र अंदाज़ मत करना ,
वरना बहुत पछताना होगा ,
विधि के विधान को तो अपनाना ही होगा
सुन कर भीतर की आवाज़ ,जब मै डर गया ,
यु लगा जैसे की मै ,जीते हुए ही मर गया ,
हाय ! तेरे विधान को न पहचाना
क्यों आखिर संतो का शास्त्रों का ,गुरुओ का , कहना नहीं माना ,
फिर आवाज़ आई -----------
अभी मै तेरे साथ हु
यु लगा कोई नजदीक आ रहा है
रह रह के भीतर से कोई जगा रहा है ,
हिम्मत से जो कर्म हो जाता है !
सत्य से वही धर्म हो जाता है !
असत्य से कुकर्म बन जाता है !
तितिक्षा से सुकर्म बन जाता है !
कर्म की गति बड़ी ही गहन है
इसे समझो, पहचानो ,जानो
इसकी अवेहलना करके कैसे जी पाओगे ,
इसे नहीं जाना तो मुक्ति कैसे पाओगे
मानुष जनम किसी को यु ही नहीं मिलता
जब तक पुण्यो का खाता नहीं खुलता
जान लो ! तुम मनुष्य हो, देव हो ,
ऐसा क्या है ? जो तुम नहीं कर सकते हो
प्रभु का भी पेट भर सकते हो !
क्योंकि वो भूखा है प्रेम का ,
और तुम प्रेम कर सकते हो !
इतनी सुंदर प्रेरणा -----------तुम कौन हो ?
आवाज़ आई मै तुम्हारी चेतना हु !
मै किसी चेतना को नहीं जानता -------------बडबडाया
तभी ,मुझे किसी ने झनझनाया
जन्मो से मै तेरे साथ हु ,और तू कहता है ,मै अनाथ हु !
मै तेरा अंतर्यामी हु ,अनंत ब्रह्मांडो का मै स्वामी हु !
मेरे हाथ जुड़ गए ,आंखे बंद हो गयी !
सदियों से जो सुखी थी, आज नम हो गयी,
आवाज़ रुक गयी ,कंठ गदगद हो गया ,
अधुरा वाक्यात आज पूरा हो गया ,
बहते आंसू बोल उठे ,ये बदला कैसे चुकाऊंगा ,
तुम ही बताओ ,तुम्हारी शरण मै कैसे आऊंगा ?
मेरे भीतर से ये कौन गीत गा रहा है ?
रह रह के भीतर से कोई जगा रहा है ,
तू स्वयं ब्रह्म है ,ये जान ले
आज स्वयं को पहचान ले
हृदय को शुद्ध करके ,
प्रेम की गागर भरके ,
सत्य की लाठी लेकर,
सीधा सीधा चला जा ,मत देख किसी को ,
गर मुझसे मिलना है ,तो बिखरना ही होगा ,
आंधी और तुफानो से, तुझे लड़ना ही होगा ,
मै बोल उठा ,मुझे कुछ नहीं समझ आ रहा है ,पर
रह रह के भीतर से कोई जगा रहा है !
समझ से यु मुह न फेरना ,
कही ऐसे ही ,हो जाय देर ना
विवेक जगा कर ,कुछ तो सुलझो ,
वक़्त बहुत कम है ,मत उलझो
देर हो गयी तो ये तन मर जायेगा
खाली हो गया दीपक तो कैसे भर पायेगा
प्रकृति से जुड़ जाओ
प्राकृतिक ही हो जाओ
प्राकृतिक हुए बिना बात नहीं बनती ,
विषय भोगो की कभी भी ,राह नहीं थमती
कोई रास्ता नज़र नहीं आता ,विधि का विधान आखिर क्यों नहीं भाता ?
कैसी विडम्बना है ,जलचर प्यासे है ,
सागर के जीव ,जो सागर में ही रहते है ,
वे तो निर्बोध है ,हम तो बोधवान है ,
सच तो यही है, हम स्वयं ही भगवान है !
पर, सत्य से से गर डिग गए ,
मझधार में ही रुक गए ,
कैसे फिर पायेगे शान्ति ,
कैसे रुकेगी ? भीतर चल रही क्रांति ,
फिर भी विश्वास है ,इक आस है ,
परम पिता का मेरे सर पर ,सामर्थ्ये भरा हाथ है
यही सोच कर फिर आनंद आ रहा है !
रह रह के भीतर से कोई जगा रहा है !
उदास न हो ! निराश न हो !
हे पुत्र ! तुझे ,मुझ पर, अविश्वास न हो
सत्य मै हु,मेरी अंगुली पकड़ना
अनजानी राहो पर धीरे धीरे चलना ,
मै तुझे रास्ता दिखाऊंगा ,
गर भटक भी गया ,तो स्वयं आ जाऊँगा ,
गर हिम्मत से मुझे थामे ही रहा ,
और क्या कहू ,मै तेरा रास्ता बन जाऊंगा ,
ये कोई एहसान नहीं है ,हकीक़त है ,
ज्ञान हर इंसान की जरूरत है ,
भटके हुओ को रास्ता दिखाना , मेरा काम है !
मै ही वो अंतर्यामी हु,जिसका नाम भगवान है !!!
ओह ! मै कितना नासमझ था ,तुमे समझ ही न पाया
प्रभु ही कह रहे है ,ये सोच भी न पाया ,
अब विश्वास जग गया है ,अज्ञान मिट गया है ,
बुझा हुआ दीपक , फिर से जल गया है
तुम सदा से हो मेरे विश्वास आ रहा है !
रह रह के भीतर से कोई जगा रहा है !!!
(प्रभु के चरणों की चरण धूलि )
देव पुष्करना